वांछित मन्त्र चुनें
आर्चिक को चुनें

ए꣣ष꣢ धि꣣या꣢ या꣣त्य꣢ण्व्या꣣ शू꣢रो꣣ र꣡थे꣢भिरा꣣शु꣡भिः꣢ । ग꣢च्छ꣣न्नि꣡न्द्र꣢स्य निष्कृ꣣त꣢म् ॥१२६६॥

(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)
स्वर-रहित-मन्त्र

एष धिया यात्यण्व्या शूरो रथेभिराशुभिः । गच्छन्निन्द्रस्य निष्कृतम् ॥१२६६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए꣣षः꣢ । धि꣣या꣢ । या꣢ति । अ꣡ण्व्या꣢꣯ । शू꣡रः꣢꣯ । र꣡थे꣢꣯भिः । आ꣣शु꣡भिः꣢ । ग꣡च्छ꣢꣯न् । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । नि꣣ष्कृत꣢म् । निः꣣ । कृत꣢म् ॥१२६६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1266 | (कौथोम) 5 » 2 » 3 » 1 | (रानायाणीय) 10 » 2 » 1 » 1


बार पढ़ा गया

हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में मुक्ति के विषय का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(इन्द्रस्य) परमेश्वर के (निष्कृतम्) परम धाम को (गच्छन्) जाता हुआ (एषः) यह सोम जीवात्मा (अण्व्या) सूक्ष्म (धिया) ऋतम्भरा प्रज्ञा द्वारा (याति) लक्ष्य को पा लेता है, जैसे (शूरः) कोई शूर मनुष्य (आशुभिः) वेगवान् (रथैः) रथों द्वारा लक्ष्य को पाता है ॥१॥ यहाँ लुप्तोपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मुक्ति की प्राप्ति में ऋतम्भरा प्रज्ञा परम सहायक होती है ॥१॥

बार पढ़ा गया

संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्रादौ मुक्तिविषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य (निष्कृतम्) परमं धाम (गच्छन्) व्रजन् (एषः) अयं सोमः जीवात्मा (अण्व्या) सूक्ष्मया (धिया) ऋतम्भरया प्रज्ञया (याति) उच्चस्थितिं प्राप्नोति, यथा (शूरः) कश्चिद् वीरो जनः (आशुभिः) वेगवद्भिः (रथैः) स्यन्दनैः याति तद्वदिति लुप्तोपमम् ॥१॥ अत्र लुप्तोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

कैवल्यप्राप्तौ ऋतम्भरा प्रज्ञा परमसहायिका जायते ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१५।१।